
वासुदेव बलवंत फड़के (Vasudev Balwant Phadke) जन्मजात देशभक्त थे | वे ईश्वर के घर से ही देशभक्ति लेकर धरती की गोद से उत्पन्न हुए | उन्हें न तो किसी से प्रेरणा मिली न किसी से प्रोत्साहन ही प्राप्त हुआ | समय और स्थिति ने ही उनके हृदय में देशभक्ति का सागर उंडेल दिया | वे स्वयं भी देश की स्वतंत्रता के लिए मिट गये , मिटकर अमर बन गये |
वासुदेव बलवंत फड़के (Vasudev Balwant Phadke) जा जन्म महाराष्ट्र प्रदेश के कुलाबा जिले के एक गाँव में 4 नवम्बर 1845 ई. के दिन हुआ था | उनके पिता का नाम बलवंत और माँ का नाम सरस्वती बाई था | उनका एक भाई और दो बहने भी थी | फड़के का पालन-पोषण महाराष्ट्रय संस्कृति में हुआ था | वे जब बड़े हुए तो उन्हें मराठी में शिक्षा दी गयी | मराठी के साथ ही साथ वे अंग्रेजी भी पढ़ा करते थे |
महाराष्ट्र के वीरो की जीवन गाथाये पढने में उनकी अधिक अभिरुचि थी | शिवाजी की वीरतापूर्ण कहानियाँ पढने में उनका मन अधिक लगा करता था | वे शिवाजी का चित्र सदा अपने पास रखते थे | फड़के जब कुछ बड़े हुए तो बम्बई चले गये | बम्बई में उन्होंने अंग्रेजी का अध्ययन किया | अध्ययन समाप्त करने के पश्चात उन्होंने पूना के एक सरकारी दफ्तर में नौकरी कर ली समय समय रप उनके दो विवाह हुए थे पर कोई सन्तान नही हुयी थी |
जिन दिनों फडके पूना के सरकारी दफ्तर में नौकरी कर रहे थे उन्ही दिनों एक ऐसी घटना घटी ,जिसके फलस्वरूप उनका जीवन बदल गया | एक दिन फडके को समाचार मिला कि गाँव में उनकी माँ मृत्यु शैय्या पर पड़ी हुयी है | उन्होंने घर जान के लिए अपने अंग्रेज अफसर को प्रार्थना पत्र दिया , पर उसकी छूट्टी स्वीकृत करने की कौन कहे , प्रार्थना पत्र को फाडकर ही फेंक दिया |
फडके (Vasudev Balwant Phadke) अनन्य मातृभक्त थे | वे नौकरी को नही ,मातृभक्ति को ही अधिक महत्व देते थे | नौकरी की परवाह न करके , बिना छुट्टी के ही घर की ओर चल पड़े | वे मार्ग में थे तो उनकी माँ का स्वर्गवास हो गया | उन्होंने माँ के श्राद्ध के लिए पुन: छुटटी के लिए प्रार्थना पत्र भेजा पर उनके उस प्रार्थना पत्र को भी रद्दी की टोकरी में फेंक दिया गया | उन्हें छुट्टी नही दी गयी |
फडके का हृदय पीड़ा से झनझना उठा | उन्होंने सोचा जिस अंग्रेजी शासन में हम अपनी माँ की भक्ति नही कर सकते ,उस अंग्रेजी शासन को मिटटी में मिला देना चाहिए | फलत: नौकरी छोडकर विद्रोही बन गये , ब्रिटिश शासन को धुल में मिलाने के लिए विद्रोही सेना का संघठन करने लगे |
फड़के अपने क्रांति दल के वीर साथियों के साथ डाके डालने लगे , बड़े बड़े जमींदारों को लुटने लगे | सरकारी खजानों को भी लुटने लगे | अंग्रेज अफसरों की भी हत्या करने लगे | उनके कारण चारो तरफ आतंक फ़ैल गया , भय फ़ैल गया | अंग्रेजी सरकार काँप उठी | उसने फडके को बंदी बनाने के लिए सेना भेजी , पर फडके बंदी नही बनाये जा सके | अंग्रेजी सेना फडके को बंदी बनाने के लिए जाल बिछाती , पर वे प्रत्येक जाल को कौशल और वीरता से छिन्न-भिन्न करके निकल जाते |
आखिर अंग्रेजी सरकार की और से 50 हजार रूपये के पुरुस्कार की घोषणा की गयी | घोषणा पत्र में कहा गया था “जो मनुष्य फड़के को जीवित या मृत बंदी बना देगा , उसे पुरुस्कार में पचास हजार रूपये तो दिए ही जायेंगे , बहुत बड़ा सम्मान भी प्रदान किया जाएगा ” | फडके के कानो में जब इस प्रकार के समाचार पड़ा तो उन्होंने अपनी एक घोषणा की “जो मनुष्य बम्बई के गर्वनर रैंड का सर काटकर मेरे पास लाएगा , उसे में 75,000 रूपये पुरुस्कार दूंगा”|
फडके (Vasudev Balwant Phadke) की यह घोषणा अंग्रेजी सरकार के लिए ललकार थी | अत: अंग्रेजी सरकार का हृदय उस घोषणा से कम्पित हो उठा | गर्वनर ने बड़े बड़े अंग्रेज अफसरों की भर्त्सना की और फडके को गिरफ्तारी के लिए कड़ा आदेश प्रचारित किया | फलस्वरूप अंग्रेजी सेना ने चारो ओर से इलाके को घेर लिया | गुप्तचर और सैनिक चारो ओर फ़ैल गये | बड़े बड़े जमींदार और सेठ-सहकर भी अंग्रेजी सरकार की सहायता करने लगे | फलत: एक दिन जब फडके एक मन्दिर में सो रहे थे तो उन्हें बंदी बना लिया गया |
सरकार को भय था कि यदि फडके को बंदी के रूप में महाराष्ट्र के किसी कारागार में रखा गया तो हो सकता है कि सारे महाराष्ट्र में विदोह की अग्नि प्रज्वलित हो जाए अत: अंग्रेजी सरकार ने उन्हें महाराष्ट्र न रखकर अदन भेज दिया गया | अदन के कारागार में फड़क को बड़ी यंत्रनाए दी गयी | पर वे झुकने वाले व्यक्ति नही थे | उन्होंने यंत्रणाओं से उबकर निकल भागने का प्रयत्न किया पर वे सफल नही हो सके | भागने के प्रयत्न में ही मृत्य की गोद में समा गये |